जन्मदर घटने से हिन्दू संस्कृति को भारी खतरा
कोलकाता में हिदुओं की जनसंख्या का विकास दर धीमा हो गया है जबकि अहिंदु आबादी की वृद्धि दर काफी बढ़ी है। 2001 को समाप्त हुये दशक में हिंदू महिलाओं का शिशु प्रजनन दर प्रति महिला एक बच्चा था जबकि किसी भी
धार्मिक समुदाय के टिकाऊ होने के लिये उसके आबादी का विकास दर 2.1 प्रतिशत होना जरूरी है। एक आंकड़े के अनुसार आलोच्य अवधि में कोलकाता में हिंदुओं की आबादी में महज 0.7 प्रतिशत की वृद्धि हुई है जबकि इसी अवधि में अहिंदु कौम की आबादी में 18 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
विख्यात थिंकटैंक ‘पैट्रियट फोरम’ ने यह चिंता जाहिर करते हुये कहा है कि आगामी पांच दशकों में भारत में हिंदुओं की आबादी अहिंदू जनसंख्या से कम हो जायेगी। ‘पैट्रियट फोरम’ के आंकड़ों में जगणना के आंकड़ों के हवाले से कहा गया है कि देश में जहां 1991 में देश में हिंदुओं की आबादी का विकास दर 23 प्रतिशत था जो दस वर्ष के बाद घट कर 20 प्रतिशत हो गया यानी आबादी के विकास दर में दस वर्षों में 3 प्रतिशत की गिरावट आयी है जबकि इसी अवधि में अहिंदुओं की आबादी का विकास दर 34.5 प्रतिशत से बढ़ कर 36 प्रतिशत हो गया यानी उसमें डेढ़ प्रतिशत की वृद्धि हुई है। लेकिन विख्यात थिंकटैंक ‘पैट्रियट फोरम’ ने भारत में हिंदुओं की जनसंख्या में तीव्र गिरावट के जो आंकड़े पेश किये हैं वे न केवल डराने वाले हैं बल्कि चिंतजनक भी हैं। स्व. पी एन भट्ट और ए जे फ्रांसिस ने अपने ‘ रोल ऑफ रीलिजन इन फर्टिलिटी इन डिक्लाइन’ में कहा है कि हिदू माताओं की संतानोत्पिति दर में भारी गिरावट आयी है जबकि अहिंदू माताओं की संतानोत्पिति दर में 25 से 30 प्रतिशत वृद्धि हुई है। चिंताजनक तथ्य यह है कि भारत में नीतियां तय करने के कार्य से जुड़े लोग भी इस हालात से वाकिफ हैं लेकिन इसे नजरअंदाज कर रहे हैं।
आंकड़े बताते हैं कि दुनिया भर में 1972 से संतानोत्पति दर में गिरावट आयी है। 1972 में जहां एक प्रति महिला 6 संतानें उत्पन्न करती थी वहीं 1990 में यह घट कर 2.09 हो गया। राष्ट्र संघ की जनसंख्या रिपोर्ट के अनुसार यूरोप की संतानोत्पति दर 2.1 के विस्थापन स्तर से काफी कम है।
मानव विकास के दुनिया भर में चार मानकों - शिशु मृत्यु दर( एक वर्ष से कम आयु के शिशु) ,बाल मृत्यु दर (एक से पांच वर्ष की आयु के बच्चे), शहरीकरण की दर और प्रजनन के समय जीवन की उम्मीद, के तहत भारत में अहिंदुओं से हिंदू बहुत पीछे हैं।
मानव विकास के चारों मानकों का अगर विश्लेषण किया जाय तो शहरी करण के मानकों में भारत में हिदुओं की अपेक्षा अहिंदुओं की तादाद ज्यादा है। रिलीजन डाटा रिपोर्ट 2001 के अनुसार शहरीकरण में हिंदुओं का अनुपात महज 26 प्रतिशत है जबकि अहिंदू आबदी का अनुपात 36 प्रतिशत है। यही नहीं इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के अनुसार भारत में हिदुओं की आबादी सन 2000 के 73.77 प्रतिशत से 2013 में घटकर 72.04 प्रतिशत हो गयी है। सभी आंकड़े बता रहे हैं कि भारत में हिंदुओं की आबदी में तेज गिरावट आ रही है जबकि अन्य धर्मावलिम्बयों की संख्या तेजी से बढ़ रही है और यह प्रवृत्ति कायम है। हालांकि भारत पर अतीत में भारी हमले हुये हैं और नि:संदेह बहुत जन हानि हुई भारत फिर से अपनी प्राचीन गरिमा तथा वैभव प्राप्त करने में सफल रहा है।
भारत में तेजी से घटती हिंदू आबादी दर से आने वाले दिनों दिनों में हिंदू धर्म को मानने वालो की संख्या घट जायेगी और इसके परिणाम की कल्पना सहज ही की जा सकती है। अब यहां प्रश्न उठता है कि बढ़ती समग्र आबादी के इस दौर में क्या यह विषय चिंतनी है। क्या समाज इस समस्या से वाकिफ है और इसके हल के लिये उपाय सुझाने का इच्छुक है।
कोलकाता में हिदुओं की जनसंख्या का विकास दर धीमा हो गया है जबकि अहिंदु आबादी की वृद्धि दर काफी बढ़ी है। 2001 को समाप्त हुये दशक में हिंदू महिलाओं का शिशु प्रजनन दर प्रति महिला एक बच्चा था जबकि किसी भी
धार्मिक समुदाय के टिकाऊ होने के लिये उसके आबादी का विकास दर 2.1 प्रतिशत होना जरूरी है। एक आंकड़े के अनुसार आलोच्य अवधि में कोलकाता में हिंदुओं की आबादी में महज 0.7 प्रतिशत की वृद्धि हुई है जबकि इसी अवधि में अहिंदु कौम की आबादी में 18 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
विख्यात थिंकटैंक ‘पैट्रियट फोरम’ ने यह चिंता जाहिर करते हुये कहा है कि आगामी पांच दशकों में भारत में हिंदुओं की आबादी अहिंदू जनसंख्या से कम हो जायेगी। ‘पैट्रियट फोरम’ के आंकड़ों में जगणना के आंकड़ों के हवाले से कहा गया है कि देश में जहां 1991 में देश में हिंदुओं की आबादी का विकास दर 23 प्रतिशत था जो दस वर्ष के बाद घट कर 20 प्रतिशत हो गया यानी आबादी के विकास दर में दस वर्षों में 3 प्रतिशत की गिरावट आयी है जबकि इसी अवधि में अहिंदुओं की आबादी का विकास दर 34.5 प्रतिशत से बढ़ कर 36 प्रतिशत हो गया यानी उसमें डेढ़ प्रतिशत की वृद्धि हुई है। लेकिन विख्यात थिंकटैंक ‘पैट्रियट फोरम’ ने भारत में हिंदुओं की जनसंख्या में तीव्र गिरावट के जो आंकड़े पेश किये हैं वे न केवल डराने वाले हैं बल्कि चिंतजनक भी हैं। स्व. पी एन भट्ट और ए जे फ्रांसिस ने अपने ‘ रोल ऑफ रीलिजन इन फर्टिलिटी इन डिक्लाइन’ में कहा है कि हिदू माताओं की संतानोत्पिति दर में भारी गिरावट आयी है जबकि अहिंदू माताओं की संतानोत्पिति दर में 25 से 30 प्रतिशत वृद्धि हुई है। चिंताजनक तथ्य यह है कि भारत में नीतियां तय करने के कार्य से जुड़े लोग भी इस हालात से वाकिफ हैं लेकिन इसे नजरअंदाज कर रहे हैं।
आंकड़े बताते हैं कि दुनिया भर में 1972 से संतानोत्पति दर में गिरावट आयी है। 1972 में जहां एक प्रति महिला 6 संतानें उत्पन्न करती थी वहीं 1990 में यह घट कर 2.09 हो गया। राष्ट्र संघ की जनसंख्या रिपोर्ट के अनुसार यूरोप की संतानोत्पति दर 2.1 के विस्थापन स्तर से काफी कम है।
मानव विकास के दुनिया भर में चार मानकों - शिशु मृत्यु दर( एक वर्ष से कम आयु के शिशु) ,बाल मृत्यु दर (एक से पांच वर्ष की आयु के बच्चे), शहरीकरण की दर और प्रजनन के समय जीवन की उम्मीद, के तहत भारत में अहिंदुओं से हिंदू बहुत पीछे हैं।
मानव विकास के चारों मानकों का अगर विश्लेषण किया जाय तो शहरी करण के मानकों में भारत में हिदुओं की अपेक्षा अहिंदुओं की तादाद ज्यादा है। रिलीजन डाटा रिपोर्ट 2001 के अनुसार शहरीकरण में हिंदुओं का अनुपात महज 26 प्रतिशत है जबकि अहिंदू आबदी का अनुपात 36 प्रतिशत है। यही नहीं इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के अनुसार भारत में हिदुओं की आबादी सन 2000 के 73.77 प्रतिशत से 2013 में घटकर 72.04 प्रतिशत हो गयी है। सभी आंकड़े बता रहे हैं कि भारत में हिंदुओं की आबदी में तेज गिरावट आ रही है जबकि अन्य धर्मावलिम्बयों की संख्या तेजी से बढ़ रही है और यह प्रवृत्ति कायम है। हालांकि भारत पर अतीत में भारी हमले हुये हैं और नि:संदेह बहुत जन हानि हुई भारत फिर से अपनी प्राचीन गरिमा तथा वैभव प्राप्त करने में सफल रहा है।
भारत में तेजी से घटती हिंदू आबादी दर से आने वाले दिनों दिनों में हिंदू धर्म को मानने वालो की संख्या घट जायेगी और इसके परिणाम की कल्पना सहज ही की जा सकती है। अब यहां प्रश्न उठता है कि बढ़ती समग्र आबादी के इस दौर में क्या यह विषय चिंतनी है। क्या समाज इस समस्या से वाकिफ है और इसके हल के लिये उपाय सुझाने का इच्छुक है।